कड़कती धुप से रोटी की तरह सिकी धरती पर
दो बूंद पानी की, रात की ओस,
कुछ देर में ओझल हो जायेगी।
सूरज का क्रोधित चेहरा
सूखा देगा उन आखरी बूंदों को भी,
जिसने ठंडी नदियों और झीलों को निर्जन कर दिया।
या फिर शायद उन बूंदो के तले
कोई बीज हो दबा सदियों पहले
किसी का हांथो से बोया हुआ
या कनक सा सत्व का बिखेरा
जो ओस की ठण्ड से कंपित हो
भीगा-भीगा उठ पड़ेगा।
ठिठुरता, कांपता, उदित धुमिल करवटों से,
बेलबूटे, वनस्पति, दरख्त, टहनिया,
खिलेंगी फिर से कुदरत के कालचक्र में।
जो रेगिस्तान में शुतुरमुर्गों पर सवार बैठे हैं,
भूल गए हैं लू और ताप में,
ओस की बूंदों ने कई मौसम देखे हैं।
Bahut khoob. Excellently penned. Brava.