अँधेरे कमरे के इक कोने में
कुछ सिकुड़े से पन्ने
बंद, नम, खिन्न हवा से नाराज़,
धूमिल ज़मीन से लिपटे थे ।
बरसों पहले की सूखी सियाही
अब फीकी- फीकी दिखती थी
और प्रणेता की स्पष्ट लिखाई
अब मुश्किल से ही दिखती थी।
ये शाम,
उन पन्नो का आखरी दिन,
ढलते सूरज की रौशनी
आवरित उन पन्नो पे,
ज्योत से प्रकट पृष्ठ- शैया और सेज़
दग्ध- शायद अपने ही तेज़ से।
Excellent terminal end .