ढलता जीवन

जो आज को मोड कर फिर कल बना दूँ,
बहती नदिया चली जिस छोर,
विपरीत उसके बहाव चला दूँ,
टूटे तारों को फिर सेजोड़,
नक्षत्र मंडली आबाद करा दूँ,
तो भी क्या है.

चल पड़ी जिस ओर समय की राह,
मन, मंजिल, राही भी चले हैं उसी प्रवाह,
मुरझाये पत्तों से खिला बागान,
क्यों रूखे मन को लुभाएगा,
विज्ञान का यह समय-यंत्र,
क्यों बीते कल को वापस लाएगा.

उम्र बीती है,
संगणक बक्से का कोई खेल नहीं है,
यादों की बरिश की झंकार,
तूफ़ान की गरज बन चुकी है,
बटन दबाते फिर हो जाए स्टार्ट,
कल और आज का ऐसा मेल नहीं है.

इस मार्ग के अनुरक्षक तुम राही,
तम, ताप, वर्षा, शिशिर हैं सहचर,
लिखे पन्नों पर सूख चुकी है सियाही,
नये पृष्ठ पर नयी कल्पना साकार करो,
जो गरजे बादल तुम पर,
तुम भी भीषण हुंकार भरो.

हर साल जलती होली की जय-जयकार करो,
काल की रचना के हर पल का त्यौहार करो,
हर चुनौती पर हंस कर गहरी सांस भरो,
रात के दृष्ट अँधेरे का अपने तेज से नाश करो,
समय के वेग से तेज अपनी धार करो,
जीवन के उआल्स से मृत्यु को लाचार करो.

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